सोमवार, 17 जुलाई 2023

 अपना एमपी गज्जब है..91

मिर्च का नाम जलेबी रखा

पर न हुई वो मीठी...

अरुण दीक्षित

अक्सर कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है!आप तो काम देखो!काम से ही पहचान बनती है!फिर वो चाहे व्यक्ति हो या कोई संस्था! इन दिनों इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए एमपी में एक ऐसा उदाहरण देखने को मिल रहा है जो यह साबित कर रहा है कि नाम चाहे जो रख लो पर काम नही बदलेगा!

 आप सही समझे!मैं व्यापम (व्यवसायिक परीक्षा मंडल) से कचबो (कर्मचारी चयन बोर्ड) तक सफर कर चुके सरकारी संस्थान की ही बात कर रहा हूं।पिछले एक दशक से अपने "कुकर्मों" की वजह से पूरी दुनियां में चर्चित इस संस्थान के नाम तो बदल रहे हैं पर चरित्र जस का तस है! दस साल पहले मेडिकल भर्ती परीक्षा में बड़े घोटाले की वजह से चर्चा में आया यह संस्थान अब पटवारी भर्ती में घोटाले को लेकर चर्चा में है।इसकी वजह से सरकार बैकफुट पर आ गई।मजे की बात यह है कि इस बार भी घोटाले के तार सत्तारूढ़ दल से ही जुड़े हैं!

 पटवारी भर्ती घोटाले पर बात करने से पहले एक नजर इस संस्थान पर डालते हैं।1970 की बात है।तब पंडित श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री थे।उन्होंने मेडिकल कालेजों में भर्ती के लिए होने वाली परीक्षाओं को कराने के लिए एक बोर्ड बनाया।नाम रखा गया प्री मेडिकल टेस्ट बोर्ड।यह नाम करीब 12 साल तक चला।

 लगभग एक दशक बाद 1981में इसी तरह का एक बोर्ड इंजीनियरिंग परीक्षा के लिए बनाया गया।उस समय अर्जुन सिंह राज्य के मुख्यमंत्री थे।एक साल बाद दोनों बोर्ड का आपस में विलय करके एक नया बोर्ड बनाया गया।उसका नाम रखा गया - प्रोफेशनल एक्जामिनेशन बोर्ड!हिंदी में नाम हुआ - व्यावसायिक परीक्षा मंडल।जो व्यापम नाम से मशहूर हुआ।

 गठन के करीब 30 साल तक व्यापम आम  सरकारी संस्थान की तरह चलता रहा।उसके भीतर क्या चल रहा है,इसके बारे में कभी कोई खास चर्चा नही हुई।इस दौरान कई सरकारें आई और गईं।किसी का ध्यान व्यापम के "चरित्र" पर नही गया।

 साल 2013 ! मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान।बीजेपी की दस साल पुरानी सरकार!दस साल की कांग्रेस सरकार की कमियों के भरोसे राज्य के लोगों का भरोसा जीतती आ रही बीजेपी सरकार को व्यापम ने बड़ा झटका दिया।अचानक यह राज खुला कि व्यापम में बैठे अफसरों ने सरकार के इशारे पर बड़ा खेल किया है।एक नेटवर्क के जरिए अयोग्य छात्रों को परीक्षा में पास कराया गया।इसके लिए मोटी कीमत ली गई। इस "कीमत" में दलाल,नकली छात्र,बोर्ड के अफसर - कर्मचारी,सरकार 

,निजी मेडिकल कालेजों के मालिक,बीजेपी के नेता और उनके मातृ संगठन के माननीय भी हिस्सेदार बने।

 व्यापम का यह घोटाला जब खुला तो देश भर में हंगामा हुआ।राज्य सरकार कटघरे में आई।खुद मुख्यमंत्री पर कांग्रेस ने गंभीर आरोप लगाए।पहले राज्य सरकार की एटीएस ने जांच की।उसने शिवराज सरकार के मंत्री स्वर्गीय लक्ष्मीकांत शर्मा के साथ साथ व्यापम के अधिकारी पंकज त्रिवेदी,नितिन महेंद्र,अजय सेन और सी के मिश्रा को भी गिरफ्तार किया।निजी मेडिकल कालेजों के मालिक और अधिकारी भी पकड़े गए।

 मामला स्थानीय अदालत से होते हुए देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचा।उसके आदेश पर सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू की जो आज भी जारी है।

 इस मामले में सैकड़ों लोग गिरफ्तार हुए।दर्जनों लोगों की संदिग्ध मौतें हुईं।आरोपों की जद में सीएम हाउस भी आया।लंबे समय तक यह मामला पूरे देश में छाया रहा।

 मेडिकल भर्ती परीक्षा की जांच के दौरान यह भी पता चला कि व्यापम ने इसके अलावा और जो परीक्षाएं कराई हैं,उन सभी में घपला हुआ है।खूब हंगामा हुआ।विधानसभा में जमकर आरोप प्रत्यारोप हुए।इस दौरान कई लोगों ने अपना मुंह बंद करने की भरपूर "कीमत"   वसूली तो कुछ को मुंह बंद रखने के लिए "समर्थन मूल्य" दिया गया।यह बात भी उसी दौरान सामने आई।

 भारी बदनामी और हंगामे के बीच राज्य सरकार ने तमाम फसाद की जड़ बने व्यापम का नाम बदलने का ऐलान कर दिया। हिंदी की हिमायती बीजेपी की सरकार ने व्यापम के मूल अंग्रेजी नाम को ही प्रचलन में लाने का आदेश दिया।इस आदेश के बाद सरकारी अमले ने व्यापम का नाम मिटा कर हर जगह पीईबी (प्रोफेशनल एक्जामिनेशन बोर्ड) लिखवा दिया।सरकारी रिकॉर्ड में व्यापम पीईबी हो गया।लेकिन लोगों की जुबान पर यह नाम नहीं चढ़ा। चढ़ता भी कैसे? खुद भोपाल नगर निगम ने अपने बस अड्डे पर बड़ा बड़ा लिखवाया - व्यापम चौराहा।

 इस बीच 2018 आ गया।लोग जेल आते जाते रहे।एक लक्ष्मीकांत शर्मा को छोड़ कोई दूसरा सत्ताधारी नेता नही पकड़ा गया।अन्य दलों के भी कुछ नेता पकड़े गए।लेकिन धीरे धीरे सब छूटते रहे।जांच चालू है साथ ही वसूली भी।

 2018 में बीजेपी की सरकार चली गई।लेकिन 15 महीने बाद ही,जैसा कि आरोप कांग्रेस लगाती  है, उसके कुछ विधायकों और एक बड़े नेता को मुंहमांगा "समर्थन मूल्य" बीजेपी ने फिर अपनी सरकार बना ली।शिवराज सिंह चौहान फिर मुख्यमंत्री बने।इसके बाद उन्होंने एक बार फिर व्यापम का नाम बदला।व्यापम से पीईबी बना यह संस्थान अचानक कचबो (कर्मचारी चयन बोर्ड) हो गया।2022 में व्यापम ने कचबो तक का सफर पूरा किया।

 नाम तो बदल गया पर संस्थान का डीएनए नही बदला।आजकल वह फिर चर्चा में है।इस बार उस पर रेवेन्यू सिस्टम की जान माने जाने वाले पटवारियों की भर्ती में घोटाला करने का आरोप लगा है।इस घोटाले में कचबो के साथ एक बीजेपी विधायक के कालेज का भी नाम आया है।

 विपक्ष ने विधानसभा में मामला उठाना चाहा तो अध्यक्ष ने अनुमति नहीं दी। 5 दिन चलने वाला विधान सभा का मानसून सत्र मात्र दो दिन में ही खत्म हो गया।इन दो दिनों में भी सिर्फ करीब ढाई घंटे ही सदन का कामकाज हुआ।सरकार के प्रवक्ता ने इस मुद्दे पर विपक्ष को ही कटघरे में खड़ा कर दिया।उन्होंने अपनी सरकार का इतनी ताकत से बचाव किया कि ऐसा लगा जैसे विपक्ष ने ही पटवारी परीक्षा कराई हो।

 लेकिन अगले ही दिन जब पूरे प्रदेश में बड़ी संख्या में बेरोजगार युवा इस घोटाले के खिलाफ सड़कों पर उतरे तो खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने पटवारी भर्ती परीक्षा की जांच कराने की घोषणा की।जांच कैसे होगी और कौन करेगा यह बाद में बताया जाएगा।

 कांग्रेस हमलावर है।वह सीबीआई से जांच की मांग कर रही है।उसके शीर्ष नेतृत्व ने भी पटवारी भर्ती घोटाले को उठाया है।उधर भर्ती परीक्षा में बैठे 12 लाख से भी ज्यादा युवा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।जो चुन लिए गए हैं अब वे भी परेशान हैं। शुरुआती दौर में जो तथ्य सामने आ रहे हैं वे यह बता रहे हैं कि पटवारी भर्ती में भी जम कर लेन देन हुआ है।एक बस्ते में कालेज चलाने वालों ने मात्र कुछ लाख रुपयों की एवज में उन लोगों को "पटवारी का बस्ता"(रेवेन्यू रिकॉर्ड) थमाने की व्यवस्था कर दी जिन्हें यह भी नही मालूम कि एमपी में कितने जिले और संभाग हैं।चुनाव सिर पर हैं! इसलिए हंगामा चल रहा है।

 इस हंगामे के बीच यह बात तो समझ में आई कि नाम से कुछ नही होता!जो जैसा होता है वैसा ही रहता है।व्यापम ने ही 41 साल में तीन नाम पा लिए लेकिन उसका काम वही रहा।हमारे गांव में कहावत है - मिर्च का नाम जलेबी रक्खा..पर न हुई वो मीठी! ऐसा ही कुछ व्यापम के साथ हो रहा है।अब कुछ भी हो पर एक बात पक्की है !अपना एमपी है तो गज्ज़ब!है कि नहीं!?

 18 जुलाई 2023




सोमवार, 10 जुलाई 2023

उस दिन कितने पत्ते झड़े थे

 #एक धुकधुकी कलेजे से उतर अक्सर उसकी हथेलियां थाम लेती है आधी रात,

फिर उसके बरअक्स रखकर खुद को सोचना

मैंने सुना  है कि उसके आँगन में एक नीम का  बड़ा सा पेड़ है, ठीक वैसा ही जैसा मेरे घर के आँगन में और  मोड़ पे है ,जब तेज हवाएँ और आंधी चलती है, बरसात होती हैं बिजली चमकती है तो वो नींद से जाग दूर तक -------- अंधेरों में झांकता है कभी कभार -बदली से निकलते  छुपते चाँद की हल्की रौशनी में नीम की  पत्तियों पे पड़ी बूंदें फिसलती है ,और वो टकटक उन्हें देखा करता है ,तब उसके अंदर का वैभव चेहरे पर दमकता है ,यहाँ भी नीम की टहनियां झूमती है तब मन बेहद पीछे चला जाता है 

देर रात किताबों को समेटना  --मोबाईल ऑफ करना -- ठंडे पानी के घूंट भी  कलेजे को नही राहत देती ,पैरों को सिकोड़ लेना फिर लिहाफ में ढँक लेना -हाथों को मोड़कर गर्दन को सिर को मुड़ी हुई बाँहों में धंसा देने के बावजूद नींद आने की कोशिशें भी कभार  बेकार हो जाती है तो फिर परदों को सरका कर बाहर देखने लगना यही होता रहता है, जब तुमसे बात हुए बगैर दिन और आधी रात बीती जाती है

अक्सर बैचनियों में  ऐसा होता है  अपनी असहायता  से तकलीफ भी होती है लेकिन फिर भी--रात गुजर जाती है---

सुबह नीम के हरे -पीले पड़े गीले पत्तों से आँगन

पट जाता है फिर नए सिरे से दिन को शुरू होना होता है

(उस दिन कितने पत्ते झड़े थे जब उस मोड़ से मुड़ते हुए देखा था तुम्हे अपने घर से--और जो

 कहने से बच  गया याद रह गया

 जो सच में सच से ज्यादा था 

नीम के मोड़ पे "-

(कुछ फुटकर नोट्स)

री पोस्ट -

क्या हम पशु हैं ?

 #एक अखबार ने लिखा है ,"क्या हम पशु हैं" 

घटना यूं है कि एक कार्यक्रम के  दौरान सीधी जिला जनपद (मध्यप्रदेश )  में  भाजपा के विधयाक प्रतिनिधि आरोपी प्रवेश शुक्ला ने फुटपाथ पर  बैठे कोल आदिवासी युवक पर पेशाब कर दी ,इस घटना का वीडियो वायरल होने पर मुख्यमंत्री ने आरोपी को एन एस ए के तहत कार्रवाई के निर्देश दिए हैं ,हालांकि आरोपी भारतीय जनता युवा मोर्चे का प्रतिनिधि रह चुका है 

अब आते हैं इस वाक्य पर कि "क्या हम पशु हैं" जवाब होगा नही ,लेकिन हम पशु से बद्दतर है क्योंकि किसी राह चलते या बैठे व्यक्ति पर कभी कोई पशु पेशाब नही करता, ना करी होगी 

 9 अगस्त को हम विश्व आदिवासी दिवस मनाते हैं 9 अगस्त 1982 को  UNO ने इसकी घोषणा की थी जिसके अंतर्गत आदिवासियों के मानवाधिकारों को लागू करने उनके संरक्षण के लिए आदिवासी दिवस मनाने की अपील की गई थी उस समय संयुक्त राष्ट्र महासभा के घोषणापत्र में अदिवासियों के  अधिकारों के विषय में घोषणा की गई 

इसके अनुच्छेद 7 के पैरा 2 में कहा गया है

आदिवासियों को विशिष्ट व्यक्तियों की तरह ही स्वतंत्रता शांति सुरक्षा के साथ जीने का सामूहिक / एकल अधिकार होगा और उनके प्रति किसी भी तरह का नरसंहार या हिंसक कार्यवाही नही की जा सकेगी, यह एक ऐसी घटना है जिसने सभ्य कहलाने वाले हमारे समाज पर कस कर तमाचा जड़ा है

मनोविज्ञान कहता है ऐसे  व्यक्ति किसी  विकृति के कारण ऐसे आचरण करते हैं ,तो सवाल है ऐसे तथाकथित सभ्य समाज में पैदा कैसे हो जाते हैं , और जनता के प्रतिनिधि तक बन जाते हैं,यदि  होते हैं तो उनकी परवरिश में क्या कमी रह जाती है बहुत सारे सवाल उठ खड़े हुए हैं,क्या हम 16 वी सदी में आ खड़े हुए हैं - क्या आज़ादी के बाद हम रोटी कपड़ा मकान के आगे नही बढ़ पाये शिक्षा या उच्च शिक्षा के साथ बुनियादी शिक्षा में पिछड़ गए ,क्या कानून के लिए कानून बनाकर अपने समाज के पिछड़े दलित,गरीब कमजोर को हमने बेसहारा नही छोड़ दिया, कोई पावर फुल नेता / आदमी है क्या इन लोगों के लिए, लचर कानून और न्याय व्यवस्था के बीच लंबी खाई है,इस घटना ने साबित कर दिया है गरीबों के लिए मान  सम्मान के कोई मायने नही --आप उनके लिए योजनाएँ  बनायें ,उन्हें पैसा बांटे उन्हें रोटी कपड़ा और मकान दे दें ,फिर उन पर यह अमानवीय कुकृत्य करें ,शर्मनाक है यह

इस घटना के बाद में उस वीडियो को यहाँ शो करना असभ्यता समझती हूँ , आप तय करिये ऐसे नारकीय लोगों की सज़ा क्या हो, क्या उन्हें आदिवासी अधिकारों के तहत सज़ा देकर  आपका कर्त्तव्य पूरा हो जायेगा ? या कोई और सज़ा होनी चाहिए ?

बुधवार, 10 अगस्त 2022

नीतीश कुमार कोई राजनीतिक त्यागी पुरुष नही है - एक विश्लेषण

 बिहार में कंधा बदल: क्या यह मोदी बनाम नीतीश की कच्ची पटकथा है? 



बिहार में मुख्यपमंत्री नीतीश कुमार द्वारा तीसरी बार पाला बदलने और 17 साल में छठी बार सीएम पद की शपथ लेने के पैंतरे को राजनीतिक प्रेक्षक अलग अलग नजरिए से देखने समझने की कोशिश कर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव के जिस ‘जंगल राज’ के खिलाफ उन्होंने भाजपा से हाथ मिलाकर लड़ाई लड़ी, उन्हीं लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ दूसरी बार सरकार बनाकर वो बिहार में ‘मंगल राज’ लाने की बात कह रहे हैं। इस मायने में नीतीश ‘पलटूराम पालिटिक्स’ के यकीनन बाजीगर हैं। लेकिन बात केवल अपनी सत्ता की पालकी का कंधा बदलने तक सीमित नहीं है। कहा जा रहा है कि नीतीश अब राष्ट्रीय फलक पर किस्मत आजमाना चाहते हैं, वो उस आसमान में उड़ना चाहते हैं, जिसे उन्होंने बिहार में 2015 में भाजपा के कंधे पर बैठकर सरकार बनाकर गंवा दिया था। वरना 2013 में जिन नरेन्द्र मोदी को ‘साम्प्रदायिक’ बताकर नीतीश ने साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ मोर्चा खोला था और जिसके कारण उन्हें विपक्ष का सर्वसम्मत चेहरा माना जाने लगा था, उन्हीं मोदी का नेतृत्व स्वीकार कर एक नैतिक लड़ाई वो हार गए थे। अब सात साल बाद नी‍तीश फिर उसी अखाड़े में खम ठोंकने की तैयारी में हैं। भले ही वो ऊपर से ना करते रहें, लेकिन भीतरी तमन्ना वही है। यहां सवाल यह है ‍कि यदि सचमुच नीतीश 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी नेता के रूप में प्रोजेक्ट हुए तो क्या वो मोदी और भाजपा को सत्ता से बाहर कर पाएंगे? क्या इतनी ताकत, आभामंडल  और जनअपील उनके पास है? क्या यह समूचा घटनाक्रम 2024 के लोकसभा चुनाव में खेले जाने वाले मोदी बनाम नीतीश कुमार नाटक की कच्ची पटकथा है?  

तथ्यों और तर्कों के आईने में देखें तो ऐसा कर पाना असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल जरूर है। यहां लोकसभा चुनाव की बात इसलिए क्योंकि भाजपा के लिए  बिहार का विधानसभा चुनाव जीतने से ज्यादा अहम वहां लोकसभा की ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना है। बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं। विजयी सीटों की संख्या के ‍िहसाब से देखें तो जब नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) 2014 में कांग्रेस नीत यूपीए का हिस्सा थी, उस वक्त भाजपा ने 40 में से 22 सीटें जीती थीं। उसका वोट शेयर 29.40 फीसदी था। तब भाजपानीत एनडीए में लोक जनशक्ति पार्टी और उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी शामिल थी ( अब यह पार्टी जेडीयू में शामिल हो गई है)। और इन दोनो पार्टियों ने भी क्रमश: 6 और 3 सीटें जीती थी। तीनो पार्टियों को अगर मिला लिया जाए यह वोट शेयर 38 फीसदी होता है। दूसरी तरफ आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस यूपीए के सहयोगी के रूप में लड़े थे। उन्हें क्रमश: 4 और 2, 2 सीटें मिली थीं। एक सीट राष्ट्रवादी कांग्रेस ने जीती थी। इस सबका वोट शेयर 44 फीसदी होता है। यानी कुल वोट ज्यादा मिलने के बाद भी सीटें एनडीए ने चार गुना ज्यादा जीतीं। तब भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थे। एनडीए की जीत को मोदी लहर के रूप में पारिभाषित किया गया। 

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू साथ थे। इनके अलावा एनडीए में रामविलास पासवान की लोक जनशक्तिपार्टी भी थी। इस गठबंधन ने बिहार में विपक्ष का लगभग सफाया कर दिया था। तीनो ने कुल 39 सीटें जीत लीं। केवल एक सीट कांग्रेस को मिली। तीनो का सम्मिलित वोट शेयर 52.45 फीसदी रहा। जबकि राजद 15 फीसदी वोट लेकर भी कोई सीट नहीं जीत पाई। हालांकि सीटों और वोट शेयर के हिसाब से भाजपा को घाटा ही हुआ। उसकी पांच सीटें कम हो गईं और वोट शेयर भी 6 फीसदी घट गया। इस चुनाव की जीत भी मोदी लहर का नतीजा ही मानी गई। 

अब 2024 में भाजपा अपने दम पर लड़ी तो उसे कितनी सीटें मिलेंगी, यह देखने की बात है। एनडीए में भी उसके साथ लोजपा ही रह सकती है। ऐसे में जीती हुई सीटो का आंकड़ा 20 तक पहुंचाना भी आसान नहीं है, केवल उस स्थिति को छोड़कर कि जब मोदी और भाजपा के पक्ष में कोई सुनामी चल जाए। देश के अंदरूनी हालात इसकी गवाही नहीं देते। भाजपा की चिंता यह है ‍कि बिहार से होने वाले घाटे की पूर्ति कहां से की जाए। बंगाल में तो अब 2019 का परिणाम दोहराना भी मुश्किल है। बाकी हिंदी पट्टी में वो अधिकतम सीटें जीत ही रही है। इसमें और इजाफे की गुंजाइश नहीं है। पूर्वोत्तर में सीटें ही बहुत कम हैं। दूसरी समस्या यह है कि भाजपानीत एनडीए से तीन बड़े सहयोगी दलों के बाहर जाने के बाद गठबंधन में कहने को 18 दल बचे हैं, लेकिन इन शेष दलों की राजनीतिक हैसियत गौण है। इसलिए एनडीए व्यवहार में अब केवल भाजपा ही है। 

तो क्या भाजपा और मोदी के लिए 2024 का चुनाव बिहार के ताजा घटनाक्रम के बाद ज्यादा कठिन होने वाला है? इसमें शक नहीं कि आज मोदी देश में लोकप्रियता के अपने सर्वोच्च शिखर पर हैं। अगले चुनाव में भी उनके नाम पर ही वोट पड़ेंगे। उसकी तुलना में नीतीश की लोकप्रियता का दायरा बिहार तक सीमित है। जहां तक जन नेता होने की बात है तो नीतीश लोकसभा तो दूर बिहार विधानसभा का चुनाव भी कभी अपने दम पर नहीं जीत सके हैं। हर वक्त उन्हें कोई न कोई सहारा चाहिए होता है। ऐसे में विपक्ष ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें प्रोजेक्ट कर भी ‍िदया तो वो अपने दम पर कितने वोट खींच पाएंगे,यह बड़ा सवाल है। यूं नीतीश ने अपनी छवि समन्वयवादी जरूर बना रखी है, लेकिन वो कोई धुरंधर वक्ता भी नहीं हैं। बिहार के बाहर उन्हें लोग कितना स्वीकार करेंगे, कहना मुश्किल है। 

तो फिर वो यह बात किस भरोसे से कह रहे हैं जो 2014 में आए, वो 2024 में न आ पाएं। यह केवल उनका सपना है या हकीकत का पूर्वाभास? ऐसा केवल एक ही स्थिति में संभव है कि देश का समूचा विपक्ष अपने मतभेदों और अहम को भुलाकर लोकसभा चुनाव में एक हो जाए, उनमें सीट शेयरिंग भी सहजता हो जाए, देश तथा लोकतंत्र को बचाने का एकमात्र एजेंडा बन जाए और जनता के गले यह बात उतारने में कामयाबी मिल जाए कि मोदी-शाह के नेतृत्व में देश सुरक्षित नहीं है, तब ही बड़ी सफलता की उम्मीद है। इस तर्क में दम इसलिए भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने 303 सीटें जीत कर अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था, तब भी उसे 37.36 प्रतिशत वोट ही मिले थे, यानी बाकी 62.64 फीसदी वोट विपक्षी दलों में बंट गए थे। अगर विपक्षी वोट नहीं बंटे तो भाजपा को सत्ता में आने के लिए अपना वोट प्रतिशत 50 प्रतिशत तक ले जाना होगा। यह आसान नहीं है। हालांकि यह कागजी गणित है। व्यवहार में ऐसा ही हो जरूरी नहीं है। 

इस देश में विपक्षी एकता का एक महाप्रयोग इमर्जेंसी के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में हुआ था, जब तकरीबन समूचा विपक्ष एक हो गया था और तबकी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस और श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव में वन-टू- वन लड़ाई हुई थी। उसमें कांग्रेस पश्चिमोत्तर भारत में साफ हो गई थी। फिर भी दक्षिण में वो पूरी ताकत से जिंदा रही थी। यानी देश का मन तब भी विभाजित था। आने वाले चुनाव में विपक्ष भी नीतीश के नेतृत्व में अपने वजूद को बचाने एक हो सकता है, लेकिन भाजपा के खिलाफ वन-टू-वन मुकाबला बनाने के लिए राजनीतिक जिगरा और त्याग चाहिए। अभी तो यह भी तय नहीं है कि विपक्ष में नेतृत्व का ध्वजदंड किसके हाथ में होगा। राहुल गांधी, नी‍तीश कुमार या ममता बनर्जी या फिर और कोई। 

जहां तक गठबंधन राजनीति की बात है तो भाजपा अब उस दौर में पहुंच गई हैं, जहां कभी कांग्रेस हुआ करती थी। वह अब सत्ता में शेयरिंग नहीं चाहती। इसके फायदे और नुकसान दोनो हैं। भाजपा यह चाहे कि देश का हर दल और हर व्यक्ति और दल राष्ट्रवादी हो जाए और उसी की तरह सोचने लगे तो यह संभव नहीं है। लेकिन विपक्षी दल अपने राजनीतिक आग्रहों और सुविधा के अनुसार कट्टी-बट्टी करते रहें तो इससे भी उन्हें कुछ ज्यादा हासिल नहीं होने वाला। जाहिर है कि राष्ट्रीय फलक पर नीतीश के लिए चमकना बेहद कठिन है। अगर वो प्रधानमंत्री बन सके तो यह चमत्कार ही होगा। 

जहां तक बिहार की बात है तो भाजपा वहां अब लगभग अकेली है। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए वो अब साम्प्रदायिक कार्ड खुलकर खेलेगी। हालांकि बिहार में इस कार्ड का चलना कठिन इसलिए है, क्योंकि बिहार का राजनीतिक चरित्र अलग तरह का है, ठीक वैसे ही कि जैसे बंगाल का है। बिहार में राष्ट्रीय मुद्दे भी जातिवाद के रैपर में ही चलते हैं। जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता के आग्रह के आगे राष्ट्रवाद और हिंदू एकतावाद पानी भरने लगता है। दरअसल‍ बिहार में सत्ता पार्टी या व्यक्ति के हाथ में नहीं आती, परोक्ष रूप से वह जाति या जातियों के हाथों में आती है। इस जातीय गोलबंदी को तोड़ना भाजपा के लिए अभी भी आसान नहीं है, क्योंकि उसके पास राज्य में नीतीश के कद का कोई नेता भी नहीं है। ऐसा नेता तैयार करने में भी वक्त लगेगा।  

कुछ नीतीश कुमार के ताजा फैसले को देश में  विपक्ष के पुनर्जन्म के रूप में देख रहे हैं। यह अति आशावाद भी हो सकता है। भाजपा गठबंधन में अपनी सहयोगी पार्टियों की जड़े खोदने का काम करती है, यह आरोप सही हो तो भी भाजपा और आरएसएस एक साथ कई मोर्चों पर काम करते हैं, यह भी समझना होगा। सारी विपक्षी पार्टियां अपने राजनीतिक हितों को दांव पर लगाकर नीतीश के पीछे बिना शर्त खड़ी हो जाएं, तो भी यह काफी मुश्किल है। यह तभी संभव है जब देश की बहुसंख्यक जनता मोदी-शाह की रणनीति और भाजपा की राजनीति से ऊब जाए। इसके कोई आसार अभी तो नहीं दिख रहे। अलबत्ता नीतीश का यूपीए में लौटना अल्पसंख्यक वोटों में राहत का सबब जरूर होगा। 

यूं नीतीश कुमार के लिए भी अब बिहार में सात पहियों वाली सरकार चलाना आसान नहीं होगा। क्योंकि महाराष्ट्र में तीन पहियों वाली सरकार ही ढाई साल मुश्किल से चल पाई। क्योंकि नीतीश समाजवादी भले हों, लेकिन राजनीतिक त्यागी पुरूष कदापि नहीं है। उनका मन कब किस से ऊब जाए, कहा नहीं जा सकता। मोदी के खिलाफ भी वो उसी स्थिति में खम ठोकेंगे, जब उन्हे पक्का यकीन हो जाएगा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी उनका ही इंतजार कर रही है, वरना पटना में मुख्यमंत्री की धुनी रमी हुई है ही, वक्त जरूरत के हिसाब से कंधा बदलने में कोई दिक्कत नहीं है न नैतिक और न ही राजनीतिक। 

वरिष्ठ संपादक अजय बोकिल की कलम से

‘राइट क्लिक’


शनिवार, 30 अप्रैल 2022

संघ का एजेंडा, मध्यप्रदेश सरकार के लिए

 *सरकार और संगठन के काम से नाखुश संघ, MP BJP को दी चेतावनी, गलतियां नहीं सुधारी तो सत्ता से हाथ धोना पड़ सकता है*


भोपाल। भाजपा के साथ आरएसएस भी चुनावी मोड में आ गया है. मिशन 2023 की रणनीति को लेकर मप्र की भाजपा सरकार से संघ ने दो टूक कह दिया है कि नहीं सुधरे तो सत्ता से हाथ धो दोगे. संघ ने यह चेतावनी सरकार और संगठन के काम से नाखुश होकर दी है. संघ ने कहा है कि गलतियां नहीं सुधारी तो हाल 2018 की तरह हो सकता है. 


संघ की बैठक में निकला निचोड़ : संघ की नजर में एमपी में फिलहाल प्रभावी ट्राइबल नेतृत्व की कमी है. खिसकते जनाधार का यह एक प्रमुख कारण माना गया है. जिस पर चिंता भी जताई गई है आदिवासियों को लुभाने की योजना के क्रियान्वयन का खाका सरकार ने संघ को दिया, लेकिन संघ की रिपोर्ट में देखा गया कि सरकार की योजनाएं सिर्फ कागजों तक ही सीमित हैं. संगठन के मुताबिक आदिवासी बाहुल्य इलाके में नेता रुचि नहीं दिखा रहे हैं. इसे देखते हुए संघ ने साफ कहा है कि बीजेपी के नेता 2018 जैसी गलतियां फिर न दोहराएं. 


सीएम शिवराज और वीडी शर्मा ने पेश किया था रिपोर्ट कार्ड: 


दिल्ली में हुई बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने सत्ता-संगठन का रिपोर्ट कार्ड पेश किया. प्रेजेंटेशन के बाद संघ ने यह भी प्लान मांगा कि सरकार आने वाले दिनों क्या करने जा रही है. इसके अलावा संगठन से भी उसकी तैयारियों को लेकर पूछताछ की गई.


संघ ने बताया अपना एजेंडा: संघ ने सरकार को एजेंडा बताकर काम पर फोकस करने की सलाह दी है. संघ ने प्रदेश के नेताओं को युवाओं पर फोकस करने के लिए कहा है. संघ के मुताबिक ढाई करोड़ युवाओं पर फोकस करने के साथ सोशल मीडिया और आईटी का काम सुधारने की भी बात कही है. संघ कि चिंता इस बात को लेकर भी है कि सत्ता और संगठन के बीच समन्वय की कमी है. जिस तरह से मंत्रियों की आपसी खींचतान और मुख्यमंत्री के साथ कई मंत्रियों का आपसी मनमुटाव की बातें सीधे तौर पर जनता के बीच जा रही हैं, विपक्ष इसका फायदा उठा सकता है

सोमवार, 8 जून 2020

पहले से अधिक संपन्नता से छिपते हैं तुम्हारे मौन के शब्द


#पहले से अधिक शब्दों के बीच,
   संपन्नता से छुपते हैं ,
  केसरिया धब्बों की तरह तुम्हारे मौन के शब्द
  मेरे मौन में--लेकिन
  देर तक रहते हैं देह में,देह की धमनियों में बजते से
  देर से अँधेरा है,यहाँ 
  दूर तक बिजली/रौशनी नही
  जिसने यकायक पहुंचा दिया है,
 इस गोपन आत्मा को, तुम तक 
 और मैंने अभी अभी रोना स्थगित कर 
दौड़ के अंतिम लक्ष्य तक,
बूँद भर से राफ्फू गिराई की महा समुद्र की
मुठ्ठी में भर   लिया ब्रह्मांड,को
सोचा --
 कब से मिलना नही हुआ तुमसे,
 कितने लंबे समय से,नही देखा तुम्हे
 इस लेखे को भी फाड़ दिया आज रत्ती रत्ती,
 बहुत तपने के बाद हुई आज बारिश में
मौलश्री के  वृक्षों का रंग गहरा हरा है आज 
 सड़के काली नदी सी, जिन पर
 मेरी राह ठुमकती है ,तुम तक आने को
 रक रसता की ऊब से उठकर
 एक मौलश्री का पेड़ उग आता है मेरी नाभि तक
कालसर्प योग से छीजती देह में -
 एक फूल धंसता है नाभि तक 
और सारी देह आहिस्ता से मौलश्री के गोल छोटे तेज फूलों की खुशबू से भर उठती है
 जानते हो बिछुड़ कर जीने का संघर्ष कैसा होता है
इसे लिखकर नही बताया जा  सकता
बस दौड़कर आतुरता में 
जीती हूँ ,ठहरकर
खुश्बू से तरबतर,तुम्हारे लिए
सोचने से ना बचते हुए
अनंत तक ,इस अँधेरे में रात -बिरात
जानते हो ना मौलश्री का एक बोन्साई भी तो है मेरे पास

 इस बार सहेज लूंगी कुछ फूल तुम्हारे लिए
( बुकुल की याद में *बकुल मौलश्री के फूल का नाम )